देहरादून।“सतगुरु सम कोई नहीं, सात द्वीप नौ खंड। तीन लोक ना पाइए, अरु इक्कीस ब्रह्मण्ड।” अर्थात, सात द्वीप, नौ खंड, तीन लोक और इक्कीस ब्रह्मांड में भी गुरु के समान हितकारी कोई नहीं। जिस गुरु की महिमा कबीर जी के ये शब्द बता रहे हैं वह सद्गुरु कौन है?
वास्तव में वह मनुष्य सद्गुरु है जिसकी चेतना ईश्वर के प्रकाश को पूर्णत: ग्रहण करने और उस प्रकाश को परावर्तित करने के लिए शुद्ध हो चुकी है। कोयले और हीरे को सूर्य के प्रकाश में रखें तो केवल हीरा ही सूर्य के प्रकाश को परिवर्तित करता है। सद्गुरु मनुष्य रूपी वह हीरा है जो ईश्वरीय प्रकाश को पूर्णत: परावर्तित कर सकता है।
सदगुरु शिष्य को, शब्द ज्ञान को ही ज्ञान मान लेने की भूल से बचाकर उसमें निहित अर्थ को जीवन में उतारना सिखाता है। वह अपने शिष्य पर पृथ्वीलोक, सूक्ष्मलोक और कारणलोक में भी दृष्टि रखता है। अर्थात, गुरु शिष्य संबंध शाश्वत है।
ऐसे ही एक सद्गुरु परंपरा के वाहक योगदा सत्संग सोसाइटी के संस्थापक तथा विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “योगी कथामृत” के लेखक श्री श्री परमहंस योगानंदजी हुए जिन्होंने केवल ईश्वर की खोज के लिए पूरे विश्व को प्रेरित ही नहीं किया बल्कि दिन प्रतिदिन अभ्यास की जाने वाली एक वैज्ञानिक प्रविधि ‘क्रियायोग’ भी दी। इसके नियमित अभ्यास से, हर मनुष्य जो मूल रूप से एक आत्मा है और जो माया के पर्दे से ढकी है, इस पर्दे में एक छोटा सा छेद कर लेता है। समय के साथ जैसे-जैसे अपने प्रयासों से वह इस छिद्र को बड़ा करता जाता है वैसे-वैसे उसकी चेतना का विस्तार होता जाता है और आत्मा अधिकाधिक व्यक्त होती जाती है। अंतत: एक दिन पर्दा फट जाता है और आत्मा पूर्णता से व्यक्त होकर, शिष्य को स्वयं का व माया का स्वामी बना देती है।
महान गुरुओं की इस परंपरा का जन्म 1861 में द्वारहाट में हुआ, जब अमर गुरु महावतार बाबाजी ने बनारस के एक गृहस्थ श्री श्यामाचरण लाहिड़ी को रहस्यमय ढंग से दूनागिरी बुलाकर वैज्ञानिक प्रविधि क्रियायोग की दीक्षा दी जो बाद में लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके शिष्य श्री युक्तेश्वरगिरीजी को जनवरी 1894 के कुंभ मेले में दर्शन देकर महावतार बाबाजी ने उनसे पूर्व व पश्चिम के धर्म ग्रंथों की समानता पर एक पुस्तक लिखने तथा कुछ समय बाद उनके पास भेजे जाने वाले एक शिष्य को पश्चिम में क्रियायोग के प्रचार एवं प्रसार के लिए प्रशिक्षित करने को कहा। वह शिष्य योगानंद जी ही थे जो उस समय मात्र एक वर्ष के थे।
शिक्षित-प्रशिक्षित होकर योगानंद जी 1920 में बोस्टन में होने वाली अंतरराष्ट्रीय धर्म संसद में भारत का प्रतिनिधित्व करने पहुंचे। उनके संबोधन से प्रभावित हो, मिले व्याख्यानों के निमंत्रण ने उन्हें वहाँ अध्यात्म की प्यासी आत्माओं का पता दे दिया। तथा वहां भी उन्होंने सेल्फ -रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) नामक संस्था की स्थापना कर दी। वे भारत में पहले ही 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया (वाईएसएस) की नींव डाल चुके थे।